कविता

जब बोलने को बहुत कुछ हो
पर वाक्य बीच में ही
बैचैन होने लगे,
तब भावना के सीने से
स्वतः ही कविता फूट पड़ती है |

चीख पड़ती है
विचारों के झुरमुट से
बहने लगती है,
भाषा के शिखर से |

वो दिखाना चाहती है
उन अंधेरे कोनों को,
वो बुलाना चाहती है
अजीब से लोगो को,
वो आवाज़ देना चाहती है
विद्रोह के बोलो को |

अगर कभी कविता चुप हो जाए
तो समझना
अंत नज़दीक है |

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